Home » Columns » प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी!

rahuljiकांग्रेसी विमर्शवीरों के लिए सब हरा-हरा है। उन्हें तो बस मजे लेते हुए मौजूदा सरकार के असफल होने की प्रतीक्षा करनी है। जैसे ही इसका करिश्मा टूटने लगेगा उनके सिवाय देश को कौन मिलेगा? तब तक कारपोरेट, पूंजी, सांप्रदायिकता आदि का बौद्धिक काढ़ा पिलाते रहिए।

 

किसी-किसी को आपके किए से तकलीफ होती है। मौका पाकर किसी-किसी का जमीर बोलने लगता है। किसी-किसी को अचानक भविष्य का अंधेरा अंतहीन दिखने लगता है। आप उन्हें झूठा, चालाक, दूसरों के हाथों में खेलने वाला बताते हुए अपने आईने पर हथौड़ा चलाते रह सकते हैं या उनके गर्त में चले जाने की मनोकामना संजोए रख सकते हैं। कांग्रेस लीडरशिप अपने लिए यह मुफीद पाती है कि चीजें चालाकी से चलती रहनी चाहिए, मुद्रा फिट रहनी चाहिए और सुविधानुसार उनके उपयोग की व्यवस्था भी होनी चाहिए। पर बार-बार सिद्ध होता है कि विरोधाभासों को बहुलता, विडंबनाओं को दर्शन तथा कर्मों को विधान बताने से पवित्रता की लूट का पर्दा उड़ जाता है।

जब जयंती नटराजन का किस्सा आया, तो यह फिर से साबित हुआ। जयंती ने कोई रहस्य नहीं खोला है। संजय बारू ने भी मनमोहन सिंह के नाम पर कोई रहस्य नहीं खोला था। वे सिर्फ यह यह बताते रहे हैं कि सरकार दस जनपथ से चलती आई है और ठीकरा ‘चेहरों’ के सिर फोड़ा जाता है। अब दस जनपथ भी अपने दिए लाइसेंस की फीस मांगकर कहता है, ‘जब हमारी वजह से बने, बनने के लिए लाइन में लगे तो ठीकरा भी फूटेगा।’

कांग्रेस के बयान की पहली लाइन यह है कि पार्टी ने उन्हें चार बार सांसद और मंत्री बनाया, इसका एहसान मानने की बजाय वे अहसानफरामोश हुए जा रही हैं। यानी चार पीढ़ियों से कांग्रेस में रही, एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे दादा (भक्तवत्सलम) की पोती को यह ‘सिद्धांत’ समझना चाहिए कि तमाम मंत्री और सांसद कृपा का कर चुकाने के लिए प्राकृतिक रूप से नत होते हैं। उन्हें अगर एक तरफ किया जा रहा है, तो एक तरफ रहकर अपनी दुर्गति स्वीकार करें।

एक और दिलचस्प टिप्पणी थी, ‘कॉर्पोरेट क्षेत्र के जिन समर्थकों ने उन पर ‘जयंती टैक्स’ के आरोप लगाए वे अब उन्हीं के पक्ष में दबाव बना रही हैं।’ जयंती यही तो रोना रो रही हैं कि अगर कोई ‘टैक्स’ था तो उन्होंने सर्वशक्तिमान के इशारे पर लगाया था। खामख्वाह टैक्स का नाम ‘जयंती टैक्स’ हो गया। यदि यह कथित ‘टैक्स’ (जिसकी वजह से परियोजनाओं को पर्यावरण के नाम पर रोका जाता और चुकाने पर हरी झंडी मिल जाती) इतना तकलीफदेह था, तो कांग्रेस की जंगल-जमीन की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता के खाते में कैसे चला गया? राहुल नियमगिरी जाकर जंगल-जमीन की सेवा में बोले थे। 2010 के उस भाषण की तालियां बटोर कर वे कुछ साल बाद जब उद्योगपतियों की संस्था फिक्की में भाषण देने खड़े हुए तो वह दिन ‘परियोजनाओं को रोकने वाली दागी’ जयंती नटराजन को हटाने का दूसरा दिन था। उस दिन उन्होंने उद्योगपतियों को कहा, ‘अब दिक्कत नहीं होगी।’ तो अंतत: यह दिक्कत नीति की थी, मुद्रा की थी या संकेतों की?

सच्चा कौन, झूठा कौन
न जयंती नटराजन झूठी हैं, न राहुल के कृपापात्र सिपाही झूठे हैं। वहां सिर्फ रोल नियत हैं, जिन्हें मौजूदा कांग्रेस की प्राकृतिक संरचना में� निभाने का अभ्यास अपेक्षित होता है। राहुल गांधी यदि सवालों के सीधे जवाब दे सकते या दस जनपथ साउथ ब्लॉक में बदलकर सरेआम सामने आना चाहता, तो बात ही कुछ और होती। पर तब, कुर्बानी का क्रांतिकारी विचार प्रदर्शित करने वाला रूप छिन्न-भिन्न हो जाता। तब सुविधानुसार मुद्रा अपनाने के रास्ते बंद हो जाते और सीधी जिम्मेदारी, जवाबदेही के चलते आभामंडल खतरे में आ जाता। जब देश के राजनीतिक दल कंपनियों की तरह चलें तो बैलेंसशीट तथा सेंसेक्स की व्यवस्थाएं इसी तरह देखी जा सकती हैं।

मनमोहन सिंह सर्वाधिक ‘मौन’ रहे और संजय बारू ने उनकी ‘हिम्मत’ की कथा कही वे कभी इस्तीफे पर नहीं उतरे। तब भी नहीं जब एक अध्यादेश की प्रति बीच प्रेस कॉफ्रेंस में जाकर राहुल गांधी फाड़ आए। मजे की बात है कि वह प्रेस कांफ्रेंस उनकी ही पार्टी की तरफ से अजय माकन ले रहे थे और बता रहे थे कि हमने कैसा शानदार अध्यादेश निकाला है। वह अध्यादेश कोई सुबह की चाय पर मनमोहन सिंह के शयनकक्ष में उपजी उबासी नहीं थी, पूरे सोच विचार के बाद की गई सरकारी कार्रवाई थी। जाहिर है, उसमें ‘सुप्रीमो’ की मर्जी शामिल न होती तो उसके बनने का सवाल ही नहीं था। (सोनिया गांधी की करीबी से विदेश विभाग में सुजाता सिंह का बने रहना और कथित तौर पर मनमोहन सिंह का जयशंकर को न ला पाना भी तो अभी खुला है।) लेकिन छवि चमकाने के लिए ‘हीरो’ की तरह स्पेशल एपीरियंस का खेल अलग गतिकी का प्रदर्शन करता है। उसमें सांविधानिक मुखिया के विदेश में रहने के दौरान का सम्मान भी कौन पूछता? अब अगर नटराजन कहे कि उन्हें निर्देश राहुल के कार्यालय से मिलते थे तो इसमें कौन सी नई बात हो गई?

कार्पोरेट बनाम गरीब थिएटर
साफ हो गया है कि अब यह स्वीकार करना खुद कांग्रेस के हित में होगा कि पार्टी और सरकार के कृत्रिम विभाजन ने पिछली यूपीए सरकार को गर्क कर दिया। एक व्यवस्था बना दी गई थी जिसमें प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल हाईकमान के अनुचर बने और बिना जवाबदेही के गांधी संचालक! जनता के प्रति (और वास्तव में सरकार की ऊंचाई के प्रति) जिम्मेदार होने तथा विवेकशील रहने की बजाय जयंती जैसे तमाम वफादारों का काम इस व्यवस्था को सुगम बनाए रखना था। दोहरी व्यवस्थाओं के तहत प्रकट में, राहुल कॉमनवेल्थ, टूजी, थ्री जी समेत कई मामलों पर पर्दे की कोशिश में पर्यावरण की चिंता, गरीबों की रक्षा और आम आदमी की पक्षधरता वाली इमेज बनाए रखते हुए गलियों में घूमते रहते और सरकार से अलग निर्देशों पर काम करने को कहा जाता। इससे ऐसा लगता जैसे सरकार पर जनता की तरफ से गांधी नैतिक नियंत्रण कर रहे हैं। अध्यादेश फाड़ने जैसी घटनाएं उसी नीति का नतीजा थीं। जयराम रमेश की विरासत में रोकी गई फाइलों पर जयंती नटराजन को लाया गया। जयंती ने जो प्रोजेक्ट रोके वे राहुल के ‘पर्यावरण प्रेम-आदिवासी हितैषी’ सिद्ध करने में काम आए। नटराजन के कार्यकाल के दौरान वेदान्ता पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लगी रोक, राहुल के लिए ट्रॉफी बनी हुई थी। उन्हीं जयंती को फाइलें रोकने के ‘भ्रष्टाचार’ में ठीक चुनाव के पहले हटा दिया गया। नटराजन के बाद जिन वीरप्पा मोइली को लगाया गया उन्होंने 2014 की चुनाव आचार संहिता लगने के ठीक पहले कथित तौर पर करीब डेढ़ लाख करोड़ के प्रोजेक्ट क्लीयर कर दिए। और, राहुल उद्योगपतियों के बीच� ‘अब चिंता मत करो’ का आश्वासन देने चले गए।

मजेदार बात यह है कि अब भी कांग्रेस के विर्मशवीर जयंती के तथाकथित खुलासे पर आनंदित हैं और यह कहकर इस उलटबांसी को वरदान बता रहे हैं कि कैसे ‘गरीब परवर’ राहुल ने इन्हें ‘उद्योगों की फाइलें दबाने’ के भ्रष्टाचरण में हटाया था। यह ‘गरीब विरुद्ध कॉरपोरेट’ का थिएटर है। ठीक वैसे जैसे किसी कॉरपोरेट घराने के फार्म हाउस में डिनर पर सौदे कराता कोई विमर्शवीर साम्यवाद का चूरन पेश करे।

पर्दे के आगे और पीछे कांग्रेस के बौद्धिक विमर्श का जिम्मा असल में जिन्होंने उठा रखा है, वे गैर कांग्रेसी पार्टियों की नाकामी के सपने पर ही अपना दांव लगाए रखते हैं। भ्रष्टाचार, दिशाहीनता, पारदर्शिता, जनाधार के क्षरण आदि के मामले में उनका जोर समाजवादी धर्मनिरपेक्षता की मुहावरावादी क्रांति तक ही सीमित है। एक गजब के ‘इच्छाधारी सोच’ के भरोसे वे ‘मोदी के जमीन पर आ जाने’ की सुखद कल्पना तक अपनी जागृति निलंबित रखना चाहते हैं। रॉबर्ट वाड्रा के मामले में कुछ विमर्शवीरों का हाल यह रहा है कि वे उन्हें देवराज इंद्र के दामाद, शक्तिमान देव मुरुगन की तरह निरुपित करने से भी नहीं चूके। (नेताओं के सक्रिय स्तंभकार बनने के इस जमाने में एक महासचिव ने तो इस आशय का कॉलम तक लिख दिया था।) जाहिर है ऐसी संस्कृति में जो भी आवाज उठाएगा, वह मारा जाएगा।
यह विडंबना ही है कि संसद-विधानसभाओं में लगातार हार पर हार झेलने के बावजूद कांग्रेस की जिस लीडरशिप पर सवाल नहीं उठाया जा सकता एक विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की जीत पर उसी लीडरशिप को श्रेय का हार पहनते देखा जा सकता है। दिलचस्प यह है कि अभी भी कांग्रेस के कई मूर्धन्य बारंबार यह कहते दिखते हैं कि, सोनिया जी या राहुल जी तो खुद कोई पद नहीं लेना चाहते वर्ना उन्हें कौन रोक सकता है। (वे तो विपक्ष में भी मल्लिकार्जुन को आगे रखते हैं)। वे पद नहीं चाहते, सेवा करना चाहते हैं। यह ऐसी अद्भुत शक्तिस्वरूपा सेवा है, जिसमें दशक के दशक पार हो गए लेकिन जवाबदेही कौड़ी की नहीं है। क्या यह उचित नहीं होगा विमर्शवीरों के भ्रम निवारण के लिए बेहतर नहीं होता कि वे कृपापूर्वक जवाबदेही लेकर पद ले लेते तो फिर ‘बलि के बकरों’ की परंपरा पर लगने वाले सारे सवाल स्वयमेव निरस्त हो जाते। तब कांग्रेस नेतृत्व को नियमगिरी, कोल ब्लॉक, कॉमनवेल्थ, वाड्रा, थ्रीजी आदि-आदि जैसी फालतू ‘अफवाहों’ को नष्ट करने की सीधी क्षमता प्राप्त हो जाती।

अवतार की प्रतीक्षा करें
दरअसल कांग्रेस को नरसिंहराव सरकार की हार के बाद की भगदड़ का समय याद नहीं आ रहा है, क्योंकि तब अपदस्थ करने के लिए एक गैर-गांधी चेहरा था और टोपी सीताराम केसरी की थी। यह वफादारों की पीढ़ियों के संघर्ष का समय है। राजीव के करीबियों और राहुल के नव-श्रद्धालुओं के बीच शक्ति-संघर्ष बन रहा है। पीढ़ियों के बीच शक्ति के हस्तांतरण के समय ऐसे संघर्ष बहुत ही भयंकर और घातक स्तर तक चले जाते हैं। भाजपा में मोदी का सत्ता हस्तांतरण, आडवाणी के साथ भयंकर संघर्ष से गुजरा, लेकिन मोदी की जीत ने उसे संपूर्ण वैधानिकता प्रदान कर दी। राहुल के पास सिर्फ ‘गांधी’ है और लगातार हार के परिणाम हैं। नेतृत्व क्षमता सिद्ध करने का कोई चिन्ह नहीं है। आज जबकि सामने आकर जिम्मेदारी लेने और नेतृत्व देने की आवश्यकता थी, तब संसद में प्रतिपक्ष का नेतृत्व संभालने तक से बचा गया। देशहित में अवसरों की सिद्धि में कौशल चाहिए, निरी चालाकी नहीं। अपेक्षा यह की जाती है कि यदि आप सच के साथ खड़े नहीं हो सकते, तो कम से कम झूठ तो मत परोसिए।

लेकिन कोई अचरज नहीं कि कांग्रेसी विमर्शवीरों के लिए सब हरा-हरा है। उन्हें तो बस मजे लेते हुए मौजूदा सरकार के असफल होने की प्रतीक्षा करनी है। जैसे ही इसका करिश्मा टूटने लगेगा उनके सिवाय देश को कौन मिलेगा?

तब तक कारपोरेट, पूंजी, सांप्रदायिकता आदि का बौद्धिक काढ़ा पिलाते रहिए।

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