Home » Columns » तूने भागवत क्यों बांची?

mohan-bhagwat-rss1भागवत अद्भुत परंपरा का हिस्सा रही है। इसके पारायण ने कई प्रवचनकारों की जिंदगी बना दी। कुछ सचमुच के संत थे और कुछ दक्षिणा-प्रेमी कुसंत। श्रद्धालुओं ने समान भाव से सबकी भागवत सुनी और भागवत ने सबको नहलाया।

अभी दूरदर्शन पर एक अन्य भागवत हुई। यह सरकारी चैनल है। इसका धर्म और धंधा एक ही है। आरएसएस के प्रमुख दशहरे पर हर साल बोलते हैं। इस बार उन्हें दूरदर्शन का सरकारी ‘लाइव’ भी मिल गया। दिलचस्प सवाल यह है कि इस सरकारी लाइव को ‘सौजन्य’ देकर प्राइवेट वालों ने क्यों लगातार चलाए रखा? इस बात से सूचना प्रसारण मंत्री जावड़ेकर का मासूम बयान बिल्कुल फिट बैठता है कि ‘यह शुद्ध समाचार महत्व का मामला है, सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं।’ असल पंजा टीआरपी है। जैसे मोदी की टीआरपी चैनलों की मजबूरी है, वर्ना ‘सास-बहू’ और ‘किक’ के नशेड़ी, पावर पैक्ड मोदी को चार सेकंड भी क्यों दें।

तो, असल सवाल यह है कि भागवत को लाइव क्यों मिला? असल जवाब यह है कि दूरदर्शन जबसे पैदा हुआ है, सरकार के अविश्वसनीय आंकड़ों का अधिकृत प्रसारक रहा है, जिसे गुलामी, घाटे और अलाली के लिए भी पर्याप्त सम्मान प्राप्त है। ‘हम लोग’, ‘बुनियाद’, ‘रामायण’ के दिन याद करने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि तब मोनोपली का कृषि दर्शन था। एक-एक प्रोग्राम के लिए ऊंचे-ऊंचे प्रोड्यूसर फाइलें लिए मंडी-हाउस की धूल फांकते फिरते थे। हत्यारों के दरबार में अच्छा शास्त्रीय संगीत पल-बढ़ जाए, तो राजा इतिहास में महान संगीत प्रेमी की तरह चला जाता है। उसकी हत्याओं का हिसाब कौन लिखे? दस हत्याओं के बाद सौ हत्याएं देखें, तो पहले वाला काल साधुत्व का काल लगता है। प्राइवेट चैनलों के बाजार ने जब एजेंडा तय करना शुरू किया, तब बोरियत से पहला युद्ध चला, फिर विश्वसनीयता का नंबर आया। लेकिन दूरदर्शन कला-संस्कृति के पोषण के नाम पर सरकारी अन्नक्षेत्र है, इस धारणा से मुक्ति कौन दिलाता?

इस दूरदर्शन के और भी भाई-बहन प्रकट हुए। उनमें भी राग एक ही था-लाभ देना है, कृपा पानी है। विश्वसनीयता की पूछो, तो ‘सादगी’ और ‘सांस्कृतिक मूल्यों’ का नगाड़ा बजाना शुरू कर दो। कुछ लाइव काम का निकला, तो वह हंगामों की क्लिपिंग ही थी।

कहते हैं, केजरीवाल जब हीरो बने, तो उन्हें मीडिया ने चीख-पुकार करके बनाया। फिर बताया गया कि मोदी जब सुपर हीरो बने, तो उन्हें भी मीडिया ने बनाया। पर आज तक किसी ने नहीं कहा कि दूरदर्शन ने किसी सरकार को बनाया या बचाया। सब को बनाने वाले कथित उद्योग- ‘मीडिया’ में दूरदर्शन का खाता पहली बार खुला दिखता है। शिक्षक दिवस से लेकर दशहरे तक की लाइव फीड उससे उठ रही है।

जब मनीष तिवारी सूचना-प्रसारण के नियंता थे, तब पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए प्रतापसिंह बाजवा का पदारोहण समारोह दूरदर्शन पर लाइव चला था, किसी ने रजिस्टर नहीं किया।

तो रजिस्टर क्या होता है? बार-बार चलाई गई चीज भी तब रजिस्टर होती है, जब ब्रांड की योजना फिट हो। मार्केटिंग वाले इसी का खाते-पीते-बिछाते-ओढ़ते हैं। वर्ना जिस रामलीला मैदान पर हमेशा सरकार के प्रमुख को बुलाया जाता हो और रावण जलवाया जाता हो, वहां इस बार के प्रधानमंत्री को दूर रखकर जयप्रकाश अग्रवाल की सोनिया-राहुल वंदना से रामलीला संपन्न की जाए, तो कहां ब्रांड वैल्यू बदल जाती है? राम जी को कांग्रेसी टीका लगेगा और हनुमान जी को भाजपाई?

यह गतिकी या डायनेमिक्स का मामला है। जिसे हम बहुमत का अश्लील शक्ति प्रदर्शन कहकर दुरदुराते हैं, क्या उसी मुहावरे को सुविधा होने पर सहज लोकतांत्रिक निष्पत्ति करार देने से चूकते हैं?

चौटाला, लालू और रशीद मसूद किसी और चेहरे के जरिये मैदान में होते हैं और उनसे गोंद लेकर कई नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता के पोस्टर चिपकाते घूम रहे होते हैं।
यदि हम यह मानते हैं कि भागवत को दूरदर्शन पर लाइव दिखाकर सरकार ने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया है, तो इसमें यह स्वीकार अंतर्निहित है कि दूरदर्शन अंतत: सरकार का ही है और सरकारें; अपनी नीति और नियति की खुद जिम्मेदार होती हैं। मुद्राओं तथा प्रतीकों के जरिये उसके एजेंडे को समझाना नामुमकिन नहीं होता। इसीलिए पहली बार बनी स्पष्ट बहुमत की दक्षिणपंथी सरकार को अपनी उन्मुक्त मुद्राओं में देखकर तिलमिलाने की स्वाभाविक दृश्यावली सामने है।

सत्ता का अपना स्वभाव होता है और सत्ता खोने का अपना पश्च-प्रभाव!

अटल बिहारी वाजपेयी से कई बार कहा जाता था, ‘आप आदमी अच्छे हैं लेकिन गलत पार्टी में हैं।’ उन्हीं कहने वालों को राम-रथ वाले आडवाणी ज्यादा सेक्यूलर लगने लगे। अब नरेंद्र मोदी की स्टार रेटिंग कुछ ज्यादा ही तकलीफदेह हो चली है। लेकिन, किसी काम को बिना सार्थक शक्ति और विश्वसनीयता के रोकना मुश्किल है, चाहे वह गांधी की झाड़ू की ब्रांडिंग ही क्यों न हो।

भागवत का बांचना, श्रद्धालुओं के लिए पुण्य का काम है। मगर संघ प्रमुख भागवत का भाषण सरकारी चैनल पर चलना श्रद्धा से ऊपर संकेतों को समझने का अवसर है।

अगर ‘टीआरपी’ और ‘समाचार तत्व’ से प्राइवेट और सरकारी, दोनों काम चल रहे हों, तो फिर कौन भक्त पूछे कि तूने भागवत क्यों बांची?

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