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newspaperकुछ मित्र पत्रकारों का मानना है कि इन दिनों अघोषित तौर पर इमर्जेंसी लगी हुई है। मंत्री और अफसर काम के सिलसिले में इतने ‘टाइट’ हैं कि वे भीतर की खबरें और मसाला उपलब्ध कराने से डरते हैं। खबरों का कारोबार ठप पड़ा है। ऊपर से प्रधानमंत्री अपनी विदेश यात्राओं में जो टोली लेकर जाया करते थे, वह भी बंद हो गया है। पासपोर्ट की मोटाई बढ़ा-बढ़ाकर मुफ्त सरकारी अफ्रीका-इटली-जापान करने वाले एक विकट सज्जन मिले। उन्होंने ऊंची जगहें संभालीं, पर कलम उठाने से हमेशा परहेज किया। उन्हें कभी विदेश जाने से फुर्सत नहीं मिली। अब राजनीति के राष्ट्रीय संकट पर चिंतित हैं। भूटान, ब्रिक्स, डब्ल्यूटीओ, यहां तक कि नेपाल भी हो गया, वह देश में ही चांदनी चौक की जलेबी से प्रेस क्लब के पैग के बीच खत्म होते रहे।

‘यह तो सबसे खराब समय है। सब डरे हुए हैं। इतना डरा हुआ आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा। सबकी कमान हाथ में है। कोई कुछ कर ही नहीं पा रहा है। पता नहीं, देश का क्या होगा।

‘क्या करना चाहते हैं? गड़बड़ियां हैं, तो सेंध लगाकर दस्तावेज निकालिए, ऊंचा इन्वेस्टिगेशन कीजिए और धर्म निभाइए। यह तो गजब मौका है, जब आप प्लांट किए हुए स्कूप से ऊपर जा सकते हैं।

‘यह क्या बात हुई? कोई टाइम था, जब सीएम अपने मंत्री की फाइल नेता प्रतिपक्ष और प्रेस को एक साथ पकड़ाते थे और मंत्री सड़क पर आ जाता था। अब इतना डरते हैं कि दो लाइन का बयान देने से पहले चार दिन का वक्त लेते हैं। इस तरह तो पत्रकारिता संकट में आ जाएगी। जब आप जनता से संवाद नहीं करते, तो तानाशाही आती है।

उनकी बात काफी विश्वास के साथ आई थी। वह भूतपूर्व मंत्रियों के साथ शाम गुजारकर एक विश्लेषण को पेज-वन क्रांतिकारी रहस्योद्घाटन में बदल देने वाले सदा-व्यस्त पत्रकारों की तरह रहने में भी यकीन नहीं करते थे। क्योंकि उसमें भी लिखने की मेहनत और उलटी दिशा से मुहावरा तैयार करने की प्रतिभा का निवेश तो करना ही होता है।

मैंने कहा, ‘आप तीन सदाबहार चीजों पर लग सकते हैं। एक है सोलह की उम्र और पीने का अधिकार, दूसरा एलजीबीटी (लेस्बियन-गे-बाईसेक्सुअल-ट्रान्सजेंडर) के अधिकारों की रक्षा का अभियान, तीसरा नैतिकता के नाम पर पुलिसगीरी।

वह क्रोधित हो गए, ‘ये आंदोलन के काम हैं। चलते रहेंगे। देश की दिशा निर्धारित करने की बात हो रही है और आप मुद्दे को भटका रहे हैं।
मैंने कहा, ‘आप इस विज्ञापन को देखिए। इस दिशा में कुछ संभावनाएं लगती हैं।

विज्ञापन पूरे पेज का था। एक हीरो अपनी लज्जा को एक रेडियो की आड़ में छिपाए बिना कपड़ों के खड़ा था।
यह एक आने वाली फिल्म का पोस्टर था। अखबार के फुल पेज पर खड़ा हुआ। चेहरे पर क्रोध-आश्चर्य का भाव। रेडियो के पर्दे से ज्यादा आंखों के सक्रोध विस्मय का असर। शरीर पर कोई वस्त्र नहीं, लेकिन पूरी टेक्सटाइल इंडस्ट्री को शॉक देने पर उतरा हुआ।

वह बोले, ‘क्या आप भारतीय राजनीति में लज्जा पर मेरे योगदान के बारे में सोच रहे हैं?
मैंने कहा, ‘नहीं, मैं तो सिर्फ लज्जा और नंगई के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूं।
‘प्रधानमंत्री बिना हमें लिए विदेश यात्रा कर आए, यह लज्जा का विषय है। नंगई तो सापेक्ष है, सवाल इतना-सा है कि यह किसकी तरफ से की गई है।
‘मान लीजिए, हीरो ने स्वयं ऐसा किया है। वह चाहता है कि लोग इसके बहाने उसकी देह के प्रदर्शन का झटका खाएं, तो आप क्या कहेंगे?

‘मैं तो मानता हूं कि राजनीति में भी हीरो जान-बूझकर इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि लोग झटका खाएं। यह मूल रूप से अश्लीलता है, किंतु सवाल यह है कि रेडियो पर, जो लज्जा के आवरण के रूप में उपयोग किया गया है, कौन-सा स्टेशन चल रहा है।
‘यह कुछ अजीब नहीं लगता कि आप फुल पेज नंगई को एक रेडियो स्टेशन से जोड़कर देखते हैं?

‘मूल चीज है रेडियो स्टेशन पर बजने वाला गीत, उसके प्रस्तुतकर्ता की स्क्रिप्ट। आखिर वह जो बोलेगा, वह जो सुनाएगा, वही तो रेडियो का व्यक्तित्व बनाएगा। मुझे हीरो की नंगई से अधिक महत्वपूर्ण उसके शरीर को ढकने वाले रेडियो की आवाज लगती है। उस पर यदि सरकारी समाचार आ रहे हैं, तो यह अश्लीलता को अश्लीलता से ढकने की तानाशाही, जन-विरोधी कोशिश है।
‘पोस्टर में यह संभव नहीं है कि रेडियो स्टेशन की आवाज सुनी जा सके।
‘सूई कहां ठहरी है, इससे भी स्टेशन और उसके चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है।

‘लेकिन रेडियो बंद भी तो हो सकता है। सूई कहीं ठहर गई हो।
‘मैं इसे और गंभीर तरह से देखता हूं। हो सकता है, सरकारी साजिश के तहत रेडियो स्टेशन फिक्स कर दिए गए हों।
‘लेकिन हीरो को सहज ढंग से जो आवरण उपलब्ध हुआ, उसने उपयोग किया। उसके पास वस्त्र नहीं हैं, रेडियो है। बात एकदम सीधी है।

‘जिस देश में प्रचार-प्रसार की इस अनूठी मशीन को नंगई बचाने के उपाय में बदल दिया जाए, उस देश के नियंताओं का चरित्र इतना सीधा नहीं मान सकते।
‘अभी तो आप इस फुल पेज पोस्टर पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। मैंने अंतिम निवेदन किया।

वह कुछ मिनट के लिए मौन हो गए। जेब से पासपोर्ट निकाला और कहा, ‘इस बार पीएम के दौरे में कोई गुंजाइश हो, तो जरा अपना नाम लगवाइए।
मैं पोस्टर पर राय मांग रहा था, वह पीएम के साथ यात्रा की महत्ता तथा उससे जुड़े राष्ट्रीय हित पर बोल रहे थे।
शर्म, लज्जा, राष्ट्र और राष्ट्रहित, प्रसारण के उपकरणों के भरोसे पड़े हैं और सूचना-प्रसार के नियंता हवाई यात्रा के भरोसे!

हीरो क्रोध में है। पोस्टर फड़फड़ा रहा है। करोड़ का हिसाब पक्का हो, तो वह अश्लीलता और राष्ट्रीय हित पर कोई बयान जारी करे।
बयान पर टीवी-बहस, यात्रा-प्रेमी पत्रकार महोदय कर ही लेंगे।

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