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मूर्ति की आंख के आंसू, बाग की उम्मीद में हैं। उन्हें शीशियों में भरकर व्यापार करना वैसा ही होगा जैसे चांद पर बैठी काल्पनिक बुढ़िया के चरखे की फ्रेंचाइजी बेच देना।
अरविंद की शक्ल में एक उम्मीद है।
और, उम्मीद की फ्रेंचाइजी नहीं बिकती।ArvindK

 

मूर्ति जब रोई तो उसकी एक आंख से टपकी बूंद से पंखुड़ी बनी और दूसरी आंख से जीवन जल। जिसने समझा उसने चरण धोए और पंखुड़ी को सिर पर चढ़ा दिया। जिसने चीन्हा, उसने पंखुड़ी को लपका और जल शीशी में भर लिया। जिसने मन से जान लिया कि मूर्ति क्यों रोई थी, वह गया और एक सुंदर बाग लगाने लगा! यह छोटी सी कहानी उस क्षण से शुरू होती है, जब अन्ना हजारे की शक्ल में अरविंद केजरीवाल ने वैकल्पिक आंदोलन की पहली दियासलाई जलाकर देखी थी।

उस उजाले में कितने ही लोगों को अपनी सच्ची शक्ल नजर आई। टुच्चे और सच्चे के बीच किसी ने अरविंद को ‘बच्चा’ कहा, किसी ने जिद्दी और तानाशाह। पार्टी के बनाने बाद खुद उनके आसपास जुटे लोगों की महत्वाकांक्षाओं के युद्ध ने मस्तूल हिलाए। सफलता के दावेदार सौ पिता होते हैं और असफलता अनाथ!

अरविंद केजरीवाल ने व्यक्तित्व आधारित राजनीति के चुंबकीय गुणों और हवा में बनते बारूद की गंध को पहचान लिया था। इसलिए अन्ना हजारे से लेकर ‘शेष-समाजवादी’ तक जब ऊभ-चूभ होने लगे तब भी केजरीवाल ने अपनी मफलर-छवि अटूट रखी।

यह ऐतिहासिक और दिलचस्प है कि पीढ़ियों के परिवर्तन के साथ, सोशल-मीडिया की धमक के बीच, गरीबों की मूलभूत जरूरत – पानी, बिजली और मकान के साथ फ्री वाई-फाई का पोस्टर फड़फड़ा रहा था। कांग्रेस के शिखर भ्रष्टाचरण दौर में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराने वाले अरविंद केजरीवाल ने इस बार का चुनाव बनारस के क्षेपक के बाद लड़ा था।

कोई अचरज नहीं कि राहुल गांधी के मुखारविंद से ‘नियमगिरी के गरीबों का संघर्ष’ और ‘दस लाख का सूट’ लतीफा लगा, जबकि अरविंद के खाते में विश्वास का अभियान बनकर दर्ज हो गया। ‘मोदी के मारे’ हुए तमाम राजनेता, जो कभी अरविंद केजरीवाल को संसद के भीतर और बाहर से गलियाने में प्रतिस्पर्धा करते रहे थे, ‘मोदी को मारने’ के लिए ही तो बिना पीले चावल दिए उसकी राह बुहारने को तैयार खड़े मिले थे। यह उनकी गरीबी थी और राजनीति के बाजार में केजरीवाल-करेंसी का एक्सचेंज रेट कि कलकत्ता-पटना तक के क्षत्रप ‘चीयर लीडर्स’ में तब्दील हो गए।

इस जीत के कई अर्थ हैं। और, ये अर्थ बार-बार दोहराए जाएंगे। कि, यह पारंपरिक राजनीति के प्रत्युत्तर का प्रयोग है। कि, यह गैर-कांग्रेसी वैकल्पिक राजनीति के महायोद्धाओं के लिए मौलिक हो जाने की चेतावनी है। कि, यह सत्तांध राजनीतिक चरित्र से मुक्ति की चाह की अभिव्यक्ति है।

केजरीवाल ने जब आंदोलन शुरू किया था, यूपीए के भ्रष्टाचार का चरम था। रॉबर्ट वाड्रा के जमीन सौदों, कॉमनवेल्थ के कदाचारी सत्ता नायकों तथा टूजी-थ्री जी की सनसनाहटों के साथ जो भयंकर अहंकार था उसे टीवी कैमरों के सामने रहस्योद्घाटन की नई परंपराओं से सजाकर रामलीला मैदान की आवाजों से चुनौतियां दी गईं। भाजपा तब प्रतिपक्ष में थी। आज के गुरु रामदेव भी तब रामलीला मैदान में प्रकट हुए थे।

यही नहीं, यूपीए के तमाम प्रेमी किंतु प्रकटत: गैर-कांग्रेसी महावीर भी इस ‘सिविल सोसायटी’ के खिलाफ चुनौती पेश कर रहे थे कि, दम हो तो चुनाव लड़कर आओ! सिविल सोसायटी के ही कई लोग यूपीए के पाले में थे, कई केजरीवाल की व्यक्तिगत जिद पर प्रवचन देते थे। पर केजरीवाल ने छवि को विभिन्न विरोधों की नींव पर गढ़ा। वे सत्ता को ललकारने की गरीबपरस्त शक्ति का खांटी भारतीय पोस्टर रच रहे थे।

नरेन्द्र मोदी भी चाय वाले से प्रधानमंत्री होने का रूपक लेकर चलते हैं, केजरीवाल भी अपने मफलर से आम हो जाते हैं। चायवाला सत्ता में आते ही, नजर से हट जाता है, मफलर बंधा रहता है। प्रतीकात्मक राजनीति की खूबी यही है कि भारत में वह केजरीवाल जैसे शख्स को गंगा में उतर कर नहाने पर या मंदिर में तिलक लगाकर प्रेस से बात करने पर भी परदे के पीछे की ‘सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों’ का लाड़ला बनाए रखती है।

तभी तो केजरीवाल ने हाल के चुनाव के अंतिम दिन कहा था, ‘उनके पास पैसा है, मंत्री हैं, हमारे पास सिर्फ भगवान हैं।’ सच है कि इस देश में गरीबों का सिर्फ भगवान ही है और इस अकेली भाषिक मुद्रा से तथाकथित सेकुलर और सांप्रदायिक – दोनों किस्म की चालाक राजनीतियां निरस्त करने का मजा यही देश ले सकता है।

इस चुनाव में ‘सच्चाई’ और ‘ईमानदारी’ दो शब्दों का विश्वसनीय कसम की तरह प्रयोग हुआ है। और बड़ी बात यह है कि दिल्ली का अपना चरित्र कोई ‘मूल’ नहीं है। यहां सब रोजी-रोटी-शिक्षा की तलाश में चले आते हैं और बसते जाते हैं। इनमें से ढेरों, साल में एक बार विशेष ट्रेनों में लदकर अपने गांव की शक्ल देखने जा पाते हैं या खुलती-बढ़ती जमीनों पर अपने सुखी जीवन का सपना देखते हैं। उन्हें पानी, बिजली, सामान्य सुरक्षा तथा आवागमन के ठीक-ठाक साधन चाहिए और डंडा मारकर रोजाना की वसूली वाले भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए।

झुग्गियां, राशनकार्ड तथा अवैध कॉलोनी – स्थानीय राजनीति में वोट बैंकों की पारंपरिक भराई में इन तीन शब्दों का सतत योगदान रहा है। ‘ऊंचे किस्म’ के भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय प्रवचनों के हवाले छोड़ दिया जाता है। दिल्ली के ठग, दिल्ली की दलाली जैसी सच्चाइयां साउथ दिल्ली के पब में ही दम तोड़ती  या लोधी गार्डन में कुत्तों के पट्टे सहलाती दिखती हैं।

यहां खूब बौद्धिक होते हैं। मोहरे चले जाते हैं और सभी किस्म की मौलिक क्रांतियों को पनाह भी मिलती है। जो दिल्ली से बोलता है, वह राष्ट्रीय हो जाता है। इस अर्थ में केजरीवाल ने एक साझी समस्याओं से जूझते समूह को शहर की केंद्रीय सत्ता के संदर्भ में बदल दिया है।

कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा जिस किसी ने दिया हो, उसके पीछे जो भावना है वह कांग्रेसी यानी सत्ता-चरित्र से मुक्ति की है। यदि अभी भाजपा विरुद्ध शेष दिखाई दे रहा है, तो वह भी इसी कामना का प्रस्थान बिंदु कहा जाना चाहिए। खोखली हुई कांग्रेस की एक दल के रूप में अप्रासंगिकता को भाजपा की पराजय के जश्न से बराबर करने की इच्छा बहुत से गैर कांग्रेसी दलों में जोर मार रही है। इसी वजह से कांग्रेस अपनी ‘मूंछों में मुस्कुराने’ का आसरा खोज रही होगी। लेकिन, संकेत उस कहानी से लें जो इस आलेख से शुरू की गई।

मूर्ति की आंख के आंसू, बाग की उम्मीद में हैं। उन्हें शीशियों में भरकर व्यापार करना वैसा ही होगा जैसे चांद पर बैठी काल्पनिक बुढ़िया के चरखे की फ्रेंचाइजी बेच देना।

अरविंद की शक्ल में एक उम्मीद है।
और, उम्मीद की फ्रेंचाइजी नहीं बिकती।

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