Home » Columns » उम्मीद की फ्रेंचाइजी नहीं बिकती

हंसने वाले कौन लोग हैं? लंबे-लंबे हाथ करके और गर्दन घुमाकर ज्ञान देने वाले कौन लोग हैं? मंद-मंद मुस्काते और ‘स्टिंग के बारे में स्टिंग वालों को ही मार’ का उद्घोष करने वाले कौन लोग हैं? वे कौन हैं, जो विकल्प के व्याख्यान की मीमांसा में वाचिक परंपरा का लावा उगल रहे हैं? ऊपर से भू-वैज्ञानिकों के मुहावरे उड़ाकर वैचारिक कृषि के क्षेत्र में यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि लावा जब ठंडा होता है, तो धरती उपजाऊ हो जाती है।

सिद्धांत के हथियार का पहला सिद्धांत यह है कि वह सिद्धांत से सिद्धांत का संविधान बनाता है और सिद्धांत की हत्या को सैद्धांतिक बना देता है। जब यह हो जाता है, तो मनीषी अपने तर्कों की पोथी लेकर फिर किसी सिद्धांत को बनाने निकलbroom पड़ते हैं।

कितना सिद्धांत-सिद्धांत हो गया।

आम आदमी पार्टी में पारदर्शिता, स्वराज और वैकल्पिक राजनीति की तलवारबाजी का जो प्रहसन चला, उसे सर्वाधिक आनंद से उन्होंने देखा जो ‘अरविंद केजरीवाल’ नामक परिघटना पर पहले दिन से झाडू मार देना चाहते थे। अन्ना आंदोलन के वक्त, अन्ना आंदोलन के बाद, पार्टी बनाने की घोषणा के बाद, पार्टी के पहली बार दिल्ली चुनाव जीतने के बाद, लोकसभा में सफाई के बाद और फिर दिल्ली में प्रचंड जीत के बाद हर क्षण, होश ठिकाने लगा देने की कामना कभी संसद में पलती थी, कभी मैदानों में, कभी आस्तीनों में पलती थी, कभी दास्तानों और दस्तानों में। अब जब यह खुल चुका है कि लोकसभा में ‘राष्ट्रीय’ हो जाने की जल्दी किसे थी और कौन मीडिया की स्वच्छन्द भूख का सबसे सुंदर इस्तेमाल कर रहा था, सबसे ज्यादा उदासी उस कोने में पसरी हुई है, जिसे विकल्प के स्वप्न का उम्मीद भरा कोना कहते हैं।

राजनीतिक बड़ी ‘टुच्ची’ चीज है। यह कहकर राजनीति से दूर रहने वाले भी मानते हैं कि जो सचमुच सिद्धांत से जीना चाहेगा, उसे सिद्धांत के नाम पर ही मारना सर्वाधिक आसान होगा।
समाजवादी नीतीश कुमार के लिए समाजवादी लालू से हाथ मिलाना ‘रणनीति’ हो सकती है, समाजवादी मुलायम सिंह के लिए पूरे कुटुंब को सत्ता की विक्टोरिया की सैर कराना ‘परमनीति’ हो सकती है और इन सबका मिलकर लालकृष्ण आडवाणी को नरेन्द्र मोदी से सौ गुना परम धर्मनिरपेक्ष घोषित कर देना ‘युद्धनीति’ हो सकती है और वक्त पड़ने पर ‘केजरीवाल परिघटना’ का डिविडेंड हड़पने की हर्षध्वनि में कांग्रेस के अट्टहास की कॉकटेल मिलाना भी सच्ची ‘राष्ट्र सेवा’ हो सकती है। और, इस सब पर भी ‘जय-जय’?

यह एक ऐसा खेल है, जिसमें वैचारिक संघर्षों तथा नैतिक साधनों का हवाला इफरात से दिया जाता है। चीजों को छोड़ना और चीजों को लेना, मुद्राओं का नाट्य भर होता है। दिलचस्प बात यह है कि इसे मुख्यधारा की राजनीति की अनिवार्य कलाबाजी मान लिया गया है। जिसमें ताली बजवाने की उत्कंठा जिंदा रखने की जितनी क्षमता हो, वह उतना खेल चलाता है। प्रकटत: अरविंद केजरीवाल ने कोई समाजवाद, मार्क्सवाद, लोहियावाद, माओवाद, हिंदूवाद, गांधीवाद वगैरह नहीं उठाया था। सामान्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में, सामान्य आदमी को सामान्य सुविधाएं बिना परेशानी के मिल जाएं, – बस इतना सा सिद्धांत था। यह मोटे तौर पर ‘जवाबदेह नगरपालिका’ का नागरिक सिद्धांत लगता है। स्वास्थ्य, सुरक्षा, पानी, रोशनी, छत, बिछौना… बस! कुछ-कुछ नागरिक संतत्व की उत्कट कामना का विचार। इस उत्कट कामना का तेज ऐसा हो कि सात्विक शौर्य से शुद्धि की प्रक्रिया संपन्न हो सके। इसके लिए राजनीतिक तंत्र की मौजूदा व्यवस्था के तहत एक संस्था ने आकार लिया। उसे समर्थन देने वाले कुछ खास लोग यदि समर्थन के एवज में उसे बंधक बनाने जैसी दृश्यावली निर्मित कर दें तो यह अफसोस से बहुत आगे की चीज है।

चूंकि मुख्यधारा की राजनीति ने पर्याप्त निराशाएं दी हैं, इसलिए जब एक विश्वसनीय विकल्प का उदय हुआ तो पर्याप्त आशाएं भी उसी से थीं। एक सज्जन तो इसे ‘शिवजी की बरात’ कहते थे जिसमें हर किस्म का प्राणी था। किसी एनजीओ ने आज तक सक्रिय राजनीति का इस तरह प्लेटफॉर्म खड़ा नहीं किया था। उसे सचमुच राजनीतिक दल का रूप लेने में स्वाभाविक समय लगना था। नायकों में विचार की शक्ति देखता सामान्य मनुष्य मोदी, मायावती, ममता, जया, वीपी आदि बनाता आया है। केजरीवाल के बारे में दिल्ली के चुनाव के वक्त की एक चर्चा प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘कवियन की वार्ता’ में की है।

एक औरत कह रही थी कि केजरीवाल बोलता है, तो ऐसा लगता है कि मानो फूल झड़ रहे हों। दूसरी कहती है, जब वह बोलता है तो ऐसा मन करता है कि हाथ पकड़कर मुंह में खाना खिला दूं। हाथ पकड़ कर बच्चे को खाना खिलाना उस प्रेम का प्रकार है, जिसमें मां चाहती है कि बच्चा खेलने न भाग जाए, ठीक से खाना भी खा ले। आगे त्रिपाठी जी को याद आया कि आचार्य शुक्ल ने इसे भी रस सिद्धांत में एक रस माना है।

ऐसा बच्चा जिसे हाथ पकड़कर खाना खिलाने को मन हो आए, उस केजरीवाल की छवि यों ही नहीं बनी थी। उम्मीद के एक सतत स्वप्न ने उस व्यक्तित्व को परिघटना में तब्दील किया था। इसे चाणक्य-चंद्रगुप्त के आख्यान में बदल देने वाले कुछ खिलाड़ी इतना सरलीकृत करके पेश करते हैं, मानो एक तानाशाह ने अपनी मनचाही सल्तनत खड़ी की और ईमान के लाइसेंसियों को नजरबंद कर दिया। पार्टी संविधान, पारदर्शिता, राष्ट्रीय कौंसिल जैसे बड़े-बड़े शब्दों को मीडिया के भोंगे से इतना बजाया गया कि एक साधारण उम्मीद को जैसे लकवा मार गया। केजरीवाल सब छोड़कर जाने को तैयार और आंतरिक लोकतंत्र का संख्याबल जवाब देने को प्रस्तुत!

फिर सिद्धांत-सिद्धांत! फिर मीडिया की चांदी।
�दिल्ली का मुख्यमंत्री सुशासन के लिए काम करे, राहुल गांधी छुट्टी मनाए, मोदी बिल लाते रहें या सब मिलकर क्रिकेट देखें?
इन पंक्तियों के लेखक ने केजरीवाल की दिल्ली विजय पर लिखा था, अरविंद की शक्ल में एक उम्मीद है और उम्मीद की फ्रेंचाइजी नहीं बिकती।
अब भी यह उतना ही सच है।

कोई राजनीतिक पार्टी अलग-अलग एनजीओ की साझा कोऑपरेटिव सोसाइटी नहीं होती। सैद्धांतिक तलवारबाजी नहीं, अंतत: संकल्प की परिणामदायक शक्ति ही आप के बाग की हरियाली तय करेगी।