कांग्रेस के पास अद्भुत क्षमताएं हैं। रविवार को जब नतीजे आ रहे थे, तो रीता बहुगुणा लतीफों का सैद्धांतिक अनवारण कर रही थीं। उनका सुविचार था कि हरियाणा में जो भाजपा के नाम पर जीतकर आए हैं, उनमें से कई इस वजह से जीतकर आए हैं कि वे मूल रूप से कांग्रेस के हैं। एक दूसरी जगह एक सज्जन राहुल गांधी के गायब हो जाने पर कह रहे थे कि उनकी पार्टी एक व्यक्ति नहीं, विचार से बनी है। उसके बाद वे सेक्युलरिज्म पर एक व्याख्यान देने लगे। एक अन्य कांग्रेसी का सद्विचार था कि मोदी कोई महान चीज नहीं हैं, होते तो महाराष्ट्र में बहुमत लाकर दिखाते। अन्यत्र चर्चा में एक और कांग्रेसी विचारक का वक्तव्य था कि ये हमारे खिलाफ झूठ बोलकर लूट गए, वरना हम तो सिवाय विकास के कुछ करते ही नहीं रहे हैं। एक परमानेंट नेता ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ पर लग गए।
कांग्रेस इस अर्थ में मौलिक है कि उसके लिए केंद्रीय सत्ता का विचार किराने की दुकान की तरह है। किराना वस्तुतः कोई एक चीज नहीं होता। वहां नमक, शक्कर, तेल, आटा, माचिस और झाड़ू- सभी के लिए जगह है। आप अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से वस्तुएं चुन सकते हैं। फिर भी, गल्ले पर एक मालिक होता है और वह बाकी मुस्कानों एवं अपने मुनाफे के बीच खेलता रहता है। केंद्रीय सत्ता का यह ‘किराना-विचार’ सैद्धांतिक रूप से फिट और हर वक्त नैतिक दायित्व के बाजार में प्रासंगिक बने रहने के लिए काम्य है। इसमें नमनीयता है, चतुराई है, सौदा-संभावना है। नीतीश, लालू, करुणानिधि सबके लिए महफिल का सामान है।
इसलिए उसकी प्रसन्नता इसी में निहित है कि महाराष्ट्र में भाजपा अकेले स्पष्ट बहुमत में नहीं है। या यह, कि आज नहीं तो कल, मोदी जमीन पर आ जाएंगे, हमें सिर्फ उनके असफल होने की प्रतीक्षा में टांगे फैलाकर आराम करना है। अभी बीच में हुए उपचुनावों में जब कांग्रेसी विधायक जीतकर आए, तो पहला जोर इस बात पर था कि वे ‘राहुल-दर्शन’ को जाएंगे। राहुल तो जीत पर प्रकट होते हैं, हार पर छुट्टी मनाने चले जाते हैं। वे अपरिहार्य हैं। उनके पन्ने फाड़ने की आदत से उनके बनाए प्रधानमंत्री भी सहमे रहते होंगे। केंद्रीय सत्ता के किराना-विचार में गल्ले पर बैठा एकाउन्टेंट होता है, मालिक का प्रत्यक्षतः होना आवश्यक नहीं है। अलबत्ता बोनस का वितरण और लक्ष्मी पूजन तो वही करेगा।
यदि कांग्रेस इस विचार में सुरक्षित महसूस करती है, तो इसके अपने कारण हो सकते हैं। लेकिन मोदी के मॉडल में जो बारीक कारीगरी है, उसे ‘पूंजीपतियों-कट्टरवादियों’ के पिटे हुए मुहावरे से खारिज करना आसान नहीं रह गया है। यह हर क्षण साबित होता जा रहा है कि राजनीति और रणनीति में नई तीव्रता का प्रवेश उसकी गत्यात्मकता में खास बदलाव ला चुका है। पारंपरिक चपलताओं, धारावाहिक चालाकियों के रंग उड़ चुके हैं। एक महीन गणित से, रणनीतिक साहस से चीजों का पक्ष बदला जा सकता है। शिवसेना को ‘छोटा भाई’ ही रहना चाहिए, यह एहसास दिलाने के लिए बड़ा राजनीतिक जुआ खेलना उचित है। आप बाला साहेब ठाकरे के सम्मान में, शिवसेना के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलेंगे, चाहे उद्धव आपको अफजल खान कहे। मराठी-गुजराती चलाया जाए, पर आपकी नजर घड़ी के कांटों पर दिखेगी। हिंदुत्ववादी, क्षेत्रीयतावादी, धर्मनिरपेक्षवादी, राष्ट्रवादी- सारे इकट्ठे हो जाएंगे। इस तरह धुरी ही बदल जाएगी। एक के विरुद्ध सब! एक अर्थात नायक। भारतीय मनोभूमि के अनुकूल इस दृश्य को सृजित करने की क्षमता ने संदर्भ बदल दिए हैं।
कांग्रेस को न अपने प्राथमिक सदस्यों, न आंतरिक प्रजातंत्र की जरूरत है। उसे मालूम है कि व्यवस्था ने उसे खुद व्यवस्थित किया है। विकास इतना हुआ है कि वहां अब युवराज राजीव गांधी का भोलापन भी उपलब्ध नहीं है। वह भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की कला को एक सहज उपलब्धि के रूप में लेती है। कॉरपोरेट घरानों से काम निकालकर भी वह सोशलिस्ट एजेंडे की चैंपियन हो सकती है। ‘कौन भ्रष्ट नहीं?’ को एक सूक्ति की तरह स्थापित करती है। उसे उत्तर या दक्षिण कहीं भी, राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक होने का भय ही नहीं सताता, चाहे वह वहां से साफ हो चुकी हो। यह अनूठा अभिमान है या अद्भुत आत्मविश्वास कि सत्ता को भोगने का सहज अधिकार उसके होठों पर बना रहता है। वह भारतीय सांविधानिक मूल्यों की एकमेव रक्षक के तौर पर खुद को पुकारती रहती है। इस पुकार मात्र से वह केजरीवाल हो या मोदी, प्रत्येक सूत्र को चारित्रिक पराजय देने का नाट्य रचती है।
इन दिनों वह पूंजी, हिंदुत्व आदि शब्दों के प्रयोग से भयाकुल समाज का संदर्भ खड़ा करके, खड़ा होने की कोशिश में लड़खड़ा रही है। सत्ता के शेष आकांक्षी उसके साथ खड़े होकर अपना-अपना शेयर लेते हैं। सिद्धांत के नाम पर कंठ सुखाने भर से विश्वसनीयता का लाइसेंस नहीं मिल जाता। पर लगता है, इसे जानकर भी अनजान बने रहने में भलाई है, क्योंकि दूसरे इलाके कड़ी चुनौतियों से भरे हैं। इन चुनौतियों का दंभ या प्रतीकों से जवाब नहीं दिया जा सकता।
एक दयनीय कांग्रेस, प्रसन्नता का विषय नहीं है। इसके दर्शनशास्त्रियों को अब पार्टी पर करुणा आनी चाहिए। यह अजीब वक्त है जब मोदी की भाजपा का विकल्प खोजने में वे लगे हैं, जो कभी कांग्रेस के विकल्प की चर्चा मात्र को लतीफा कह देते थे।
अब इन लतीफों से ऊपर उठना चाहिए। बीमार कांग्रेस को अनारों की खेती की सलाह देने के बजाय भीतर झांकना चाहिए। शायद जवाब दस जनपथ से मिलेगा।